शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

एंथ्रेक्स बीमारी के बहाने मृत 22 चीतलों के मामले को दबाने की साजिश

* जू प्रबंधन की लापरवाही पर पर्दा डाला जांच टीम ने 
* पीसीएफ समेत बड़े अफसरों ने पल्ला झाड़ा 
* पोस्ट मार्टम किये बिना दफनाया गया मृत चीतलों को 
 
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से दस किलोमीटर दूर स्थित कानन पेंडारी स्मॉल जू में मंगलवार की रात को हुई 22 चीतलों की मौत के मामले में जांच टीम और पीसीसीएफ समेत बड़े अफसरों ने एंथ्रेक्स बीमारी के बहाने पूरे मामले को रफादफा करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। बुधवार की शाम को जू पहुंचते ही दुर्ग के विशेषज्ञ पशु चिकित्सकों ने रक्त नमूने लेकर जांच की खानापूर्ति करते हुए चंद घंटों के भीतर चीतलों की मौत की असली वजह एंथ्रेक्स बीमारी बता कर मामले को दबाने में अहम् भूमिका निभाई। जानवरों और इंसानों की सुरक्षा का हौव्वा खड़ा कर मृत चीतलों का पोस्ट मार्टम किये बिना उन्हें जू परिसर में ही गड्ढा खोद कर दफना दिया गया। एंथ्रेक्स के बैक्टीरिया फैलने की आशंका की आड़ में आठ दिन के लिए जू को बंद कर दिया गया है।   
एंथ्रेक्स बीमारी फैलने का झूठा दावा कर कानन पेण्डारी जू में चीतलों की मौत का मामला सुनियोजित तरीके दबाने की कोशिशे जारी हैं। वन विभाग के बड़े अफसर भी मातहतों को क्लीनचिट देने में लगे हुए है। रायपुर से प्रधान मुख्य वन संरक्षक रामप्रकाश बुधवार की शाम को जू पहुँचते ही डीएफओ से घटना की जानकारी ली और उनके साथ मिलकर मामले की लीपापोती में जुट गए। मीडिया को चीतलों की मौत की क्या वजह बताना है, इसकी रणनीति भी बना ली गई। गुरूवार को सुबह मृत चीतलों को बिना पोस्ट मार्टम किये ही चुपचाप दस फुट गड्ढा खोद कर दफना दिया गया। चीतलों के केज के सारे सबूत नष्ट करवा दिए गए। दिखावे के लिए चीतलों का ब्लड सैम्पल और बिसरा इन्डियन वेटनरी साइंस इंस्टीट्यूट बरेली को भेजा गया है।  वहाँ से भी एंथ्रेक्स बीमारी की पुष्टि कराने की रणनीति बनाई गई है। 
लापरवाही को बढ़ावा देने वाले डीएफओ को भी दिया जांच का जिम्मा 
चीतलों की मौत के मामले में रामप्रकाश, प्रधान मुख्य वन संरक्षक, वन्य प्राणी ने तीन सदस्यीय जांच टीम गठित की उसमें सीएल अग्रवाल, उप संचालक अचानकमार  टाइगर रिजर्व, डा पीके चन्दन, जू के पशु चिकित्सक के अलावा बिलासपुर के डीएफओ हेमंत कुमार पाण्डेय को भी शामिल करना चौंकाने वाली बात है। इनकी लचर कार्य प्रणाली और उदासीन रवैये के कारण ही जू प्रबंधन की लापरवाही में लागातार इजाफा हुआ है। बीते साल नवम्बर में इसी जू में लापरवाही के चलते बाघिन चेरी के तीन शावकों की मौत हो गई थी। पूरे जू के जानवर और पक्षियों की चिकित्सा का जिम्मा यहाँ पदस्थ कुत्ते के डॉक्टर पीके चन्दन को दिया गया है। रेस्क्यू सेंटर के प्रभारी और ट्रेंक्यूलाइजर विशेषज्ञ होने की वजह से वे ज्यादातर दूरस्थ इलाकों के दौरे पर रहते हैं। 65 एकड़ में फैले कानन पेंडारी में बाघ, शेर सहित बड़े और छोटे 354 जानवरों की जिंदगी भगवान भरोसे है।1975 में स्थापित इस वन्य प्राणी उद्यान को वर्ष 2005 में केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण द्वारा स्मॉल जू का दर्जा दिया गया था। लेकिन तब से आज तक यहाँ सेन्ट्रल जू अथारिटी के मापदंडों का बिलकुल पालन नहीं हुआ है। इस हादसे के बाद स्मॉल जू की मान्यता खतरे में पड़ गई है। गौरतलब है कि जिस केज में 22 की चीतलों की मौत हुई है वहाँ कुल 55 चीतल रखे गए थे।  जबकि वहाँ अधिकतम तीस चीतल ही रखे जाने थे। जू के हाजिरी रजिस्टर के मुताबिक घटना की रात को 14 सुरक्षा कर्मी तैनात थे, जबकि असलियत यह है कि मात्र दो सुरक्षा कर्मी ही मौजूद थे।        
एंथ्रेक्स बीमारी के नाम पर नहीं किया गया मृत चीतलों का पोस्टमार्टम 
रामप्रकाश, प्रधान मुख्य वन संरक्षक, वन्य प्राणी, रायपुर ने भी इस मामले को रफादफा करने में गहरी रुचि ली है। गुरूवार को सुबह जू में गोपनीय तरीके से मृत चीतलों को दफनाये जाने के बाद उन्होंने पत्रकारों को आमंत्रित कर सफाई दी कि जिस बाड़े में चीतलों की मौत हुई थी, उसमें 53 चीतल रखे गए थे।  इसमें 18 नर और 35 मादा चीतल थे। मृत सभी चीतल मादा हैं। जिनकी उम्र तीन माह से लेकर पाँच वर्ष तक है। सुरक्षा की दृष्टि से मृत चीतलों को तत्काल हटाया गया और जीवित चीतलों को अन्य बाड़े में रखा गया। उनके मुताबिक, कामधेनु विश्विद्यालय अंजोरा दुर्ग के मेडीसीन विभागाध्यक्ष सुशोभन रॉय, विभागाध्यक्ष एपीडिमियोलॉजिस्ट डा संजय साक्या और विभागाध्यक्ष माइक्रो बायोलॉजी डा एसडी हिरपुरकर द्वारा मृत चीतलों के रक्त नमूने लेकर लेब परीक्षण किया गया। इनके साथ पशु चिकित्सा विभाग बिलासपुर के संयुक्त संचालक केके ध्रुव, डा आरएम त्रिपाठी, डा अनूप चटर्जी और डा रितेश स्वर्णकार भी परीक्षण में शामिल हुए। इन्होने रक्त परीक्षण के बाद एंथ्रेक्स बैक्टीरिया ( बेसीलस एन्थ्रेसीस) पाये जाने की बात कही। इसे ही चीतलों की मौत का कारण बताया गया है। रामप्रकाश का कहना है कि एंथ्रेक्स के जीवाणु 15 साल तक किसी भी जगह जीवित रहते हैं। शायद बहुत पहले जू के आसपास ये जीवाणु रहे होंगे, इसलिए चीतलों की मौत हुई है। एंथ्रेक्स के बैक्टीरिया हवा के सम्पर्क में आते ही तेजी से हवा में फैलते हैं ,इसलिए मृत चीतलों का शव विच्छेदन न करने और दफ़नाने की सलाह दी गई। इनका दावा है कि ये बैक्टीरिया मानव, मवेशियो, और अन्य सभी गर्म खून के प्राणियों के लिए घातक है। इसलिए जू के शेष चौपायों का टीकाकरण और उन्हें एंटीबायोटिक दवा दी जा रही है। जिन स्थानों पर चीतल मृत पाये गए थे वहाँ की मिट्टी एकत्र कर दस फीट गहरे गड्ढे में दबा दी गई है। इसके अलावा चीतलों के बाड़े में पांच फीसदी फारमेलडीहाइड दवा का छिड़काव किया गया है। सुरक्षा की दृष्टि से पर्यटकों के लिए जू को फ़िलहाल आठ दिन के लिए बंद कर दिया गया है। 
मादा चीतलों के ही मरने का क्या है राज? 
शहर के वन्य प्राणी विशेषज्ञों में चर्चा है कि जू में चीतलों की बढ़ती संख्या को कम करने के नाम पर संभवतः मादा चीतलों को विषाक्त दाना खिला कर मारा गया होगा, हालांकि इसकी आधिकारिक पुष्टि होना बाकी है। इसके पहले भी जू के चीतलों को अचानकमार के जंगल में कलकत्ता के विशेषज्ञों के मार्गदर्शन में स्थानांतरित करने की प्रक्रिया में चीतलों की मौत से प्रबंधन की बदनामी हुई थी। फरवरी वर्ष 2004 में शिफ्टिंग से पांच चीतलों की मौत हुई थी। उस वक्त यहाँ केज में दो सौ से ज्यादा चीतल थे। इनकी देखभाल करने में जू प्रबंधन नकारा साबित हुआ था। यहाँ वन माफिया को खुश करने चीतल मारकर देर रात पार्टी भी गोपनीय तरीके से दी जाती रही है। कुछ बड़े अफसर भी चीतल के मांस को पकवा कर खाने के शौक़ीन रहे हैं। गौरतलब है कि मंगलवार की रात को जब 22 चीतल तड़पते हुए मौत के मुंह में जा रहे थे, तब उसी दौरान जू के रेस्ट हाउस में एक रसूखदार नेता अपने मित्रों के साथ शराब के साथ मांसाहारी पार्टी कर का आनंद ले रहे थे। जू के कर्मचारी इनकी मेहमाननवाजी कर रहे थे। 
चीतल की संख्या घटाने अपनाए गए कई हथकंडे 
वैसे भी जू में चीतलों की तादात घटाने वन विभाग और जू प्रबंधन परदे के पीछे कई हथकंडे अपनाते रहा है। इस बार उन्होंने एंथ्रेक्स बीमारी की आड़ ली है। बिलासपुर के पशु चिकित्सा विभाग के संयुक्त संचालक केके ध्रुव का तर्क है कि मादा चीतल अधिक संवेदनशील होती है। उनमे प्रतिरोधक क्षमता भी नर चीतल के मुकाबले कम होती है। मादा चीतलों के झुण्ड के साथ शावक भी रहते हैं इसलिए ये सभी एंथ्रेक्स बीमारी के शिकार जल्द हो गए। एंथ्रेक्स के जीवाणु किसी पक्षी के द्वारा भी इनमे आये होंगे। एंथ्रेक्स से पीड़ित कोई पक्षी किसी मादा चीतल को चोंच मारी होगी। जिससे इसका संक्रमण हुआ होगा। वहीं दूसरी तरफ राज्य वन्य प्राणी संरक्षण सलाहकार समिति के सदस्य रहे प्राण चड्ढा ने दावा किया है कि बिलासपुर का इलाका पिछले दस सालों से एंथ्रेक्स फ्री जोन रहा है। एंथ्रेक्स बीमारी का हवाला देकर बड़े अफसर, जाँच टीम और विशेषज्ञ डाक्टर जू प्रबंधन की लापरवाही पर पर्दा डाल रहे है। मौत के असली कारण को छुपाया जा रहा है। चीतलों के बाड़े में घटना दिनांक को दाना डालने गए जू कर्मी के पीछे कोई कुत्ता भी घुस गया होगा जिसने बाद में कुछ मृत चीतलों का पेट नोंच खाया होगा। यह सब जू प्रबंधन की लापरवाही का ही नतीजा है। इस मामले की उच्च स्तरीय जाँच होनी चाहिए। मुख्यमंत्री को इस मामले में दखल देना चाहिए, क्योंकि वन मंत्रालय उन्हीं के अधीन है। खास बात यह है कि जिस जानलेवा एंथ्रेक्स बीमारी का हौव्वा खड़ा किया गया है, उसी एंथ्रेक्स से ग्रस्त मृत चीतलों का बल्ड सैम्पल और बिसरा बिना कोई ठोस सुरक्षा के इंतजाम किये बगैर अधिकारी उसे हवाई जहाज से बरेली क्यों कैसे ले गए? यह सवाल भी काफी गंभीर है। तमाम सवालों से पूरे मामले की लीपापोती जाहिर होती है।         

कोई टिप्पणी नहीं: